जब चिकित्सक से योगाचार्य बन गए थे शंकरदेव

जब चिकित्सक से योगाचार्य बन गए थे शंकरदेव

कोरोनाकाल में मधुमेह, उच्च रक्तचाप और दमा जैसी बीमारियां घातक साबित हुई हैं। इसलिए इन बीमारियों के मरीजों को ज्यादा ही एहतियात बरतनी पड़ रही है। भारत में कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान का श्रीगणेश हो चुका है। बावजूद सबको पता है कि जानलेवा संक्रमण से पूरी तरह मुक्ति मिलने में समय लगेगा। इसलिए जीवन-पद्धति से जुड़ी बीमारियों के मरीज नाना प्रकार की आशंकाओं से घिरे रहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। पर आस्ट्रेलिया के चिकित्सक से योगी बने डा.शंकरदेव सरस्वती की कहानी से निश्चित ही बेहतर राह मिलेगी और नई आशा का संचार होगा।

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आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही मधुमेह और दमा के रोगी हो गए थे। खुद से बात न बनी तो दुनिया के अनेक देशों में इलाज के लिए गए। फिर भी बात न बनी तो आस्ट्रेलिया में ही मुलाकात हो गई भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं। फिर तो उनका योग के प्रति ऐसा अनुराग हुआ स्वामी सत्यानंद सरस्वती के शिष्य बन बैठे। इसके बाद अपने गुरू के निर्देशन में मानव शरीर पर योग के प्रभावों पर शोध-कार्य में इतने तल्लीन हुए कि मुंगेर में ही दस साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था। भारत की योग-शक्ति का ही कमाल है कि डा. स्वामी शंकरदेव जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। अमेरिकी लेखक औऱ पत्रकार पॉल ब्रंटन की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। वे तो जादू-टोने के देश के मामले में पश्चिमी दुनिया के नजरिए को पुष्ट करना चाहते थे। पर रमण महर्षि से आंखें मिलीं तो उनके ही होकर रह गए थे।

खैर, डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती दमा के कारण फेफड़ों औऱ कंठ में काफी तकलीफ रहती थी। श्वसन-क्रिया अवरूद्ध होने जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी तो चिकित्सकों ने टॉंसिल और एडिनॉइड ग्रंथियां तक निकाल दी। पर बात न बनी थी। दुनिया के कुछ बड़े चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एलर्जी उनके दमा की मुख्य वजह है। इसका इलाज भी बेकार गया। इस बीच शंकरदेव की शारीरिक दुर्बलत बढ़ती गई और विषादग्रस्त हो गए। स्वामी सत्यानंद के संपर्क में आने पर उन्होंने कहा कि योगोपचार तो बाद में होगा। पहले कारण पता लगाने के लिए ध्यान साधना होनी चाहिए। आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी के निर्देशन में ध्यान लगा तो अंतर्रात्मा से एक ऐसी सच्ची दास्तां निकल कर बाहर आई, जो उनके बचपन में वास्तव में घटी थी। उन्होंने गुरूजी से सारी बातें साझा की तो पता चला कि दमा और बाद में मधुमेह की वजह बचपन की वही घटना थी।

डॉ स्वामी शंकरदेव ने खुद ही अपनी अनेक पुस्तकों में जिक्र किया है कि उनका परिवार आर्थिक रूप से मजबूत नहीं था। माता-पिता को नौकरी करनी होती थी और उनका पालन-पोषण एक मेड करती थी। उन्हें जो भोजन पसंद नहीं होता था, वह उसे जबर्दस्ती खिलाती थी। इस क्रम में मारती-पीटती भी थी। स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अनुभवों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हुए थे कि मानसिक आघात अचेतन भावों को जन्म देते हैं और भविष्य में व्यवहार को प्रेरित करते हैं। नकारात्मक विचार मानसिक तनाव बढ़ाते हैं। ये स्थितियां भी लंबे समय में दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों को जन्म देती हैं। फिर तो शंकरदेव को दमा और मधुमेह को ध्यान में रखकर यौगिक क्रियाएं बतलाई गईं और वे बीते चालीस सालों से स्वस्थ्य जीवन जी रहे हैं और दूसरों के लिए भी स्वस्थ्य जीवन जीने का आधार प्रदान करते रहते हैं।  

हालांकि डॉ स्वामी शंकरदेव के बचपन की घटना यह समझने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि बाल्यावस्था में माता-पिता की कितनी अमहमियत होती है। कनाडा मूल के अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ एरिक बर्न की मानव संबधों के मनोविज्ञान पर एक चर्चित पुस्तक है – गेम्स पीपुल प्ले। उसमें भी डॉ स्वामी शंकरदेव जैसी ही कहानी है। एक माता-पिता ने अपनी बेटी पर उसकी इच्छा विरूदध पढ़ाई पढ़ने का दबाव बनाया। फिर सफलता की उम्मीद पालकर बड़े-बड़े सपने संयोए। उधर कुंठित लड़की दमा की मरीज बन गई। माता-पिता को जब तक समझ में बात आई, तब तक लड़की का जीवन तबाह हो चुका था। डॉ एरिक बर्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि माता-पिता के इस तरह के व्यवहार से बाल-मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है। डॉ शंकरदेव अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि योगाभ्यास से विकसित सजगता के माध्यम से रोग के लक्षण ही नहीं, रोग को ही सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है।

डॉ स्वामी शंकरदेव ने योग रिसर्च फाउंडेशन के लिए दमा और मधुमेह पर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रस्तुत करते हुए मन की अवस्थाओं की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उनके मुताबिक -हमारा शरीर थल जैसा, मन समुद्र जैसा और भावनाएं समुद्री किनारा जैसा है। जब मन रूपी समुद्र अशांत होता है तो किनारे पर चोट करता है और उसे काटकर सागर तल में ले जाता है। दूसरी तरफ, शांत समुद्र के किनारे सुरक्षित रहते हैं। यही बात हमारे मन , हमारी चित्त पर लागू है। शांत चित्त में रोगोपचार की शक्ति रहती है। इसलिए मन को शांत किए बिना कोई भी योगोपचार कारगर नहीं हो पाता। प्रत्याहार की क्रियाओं का महत्व सबसे अधिक इसलिए होता है। 

अब अंत में जानते हैं कि डॉ स्वामी शंकरदेव की मुख्यत: दमा और अन्य बीमारियां किन योग विधियों से दूर हो गई थीं। उन्हें शुद्धिकरण की तीन क्रियाएं कुंजल-क्रिया, नेति-क्रिया व शंखप्रक्षालन, आसनों में श्वास की सजगता के साथ शवासन, सूर्य नमस्कार व भुजंगासन, प्राणायामों में नाड़ी शोधन, भस्त्रिका व भ्रामरी और सबसे अंत में उज्जायी के साथ जपाजप। ये योग क्रियाएं ही कई मर्ज की दवा बन गईं। दमा और मधुमेह से लेकर उच्च रक्तचाप पर विजय प्राप्त हो गया था। डॉ. स्वामी शंकरदेव सरस्वती की दास्तां कोरोनाकाल में भी दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए प्रेरक है। 

(लेखक ushakaal.com के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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